धन का दंश

कितना है श्रृंगार जनम में
उदगार फिर क्यूँ है मन में,

धन लालायित मनुष्यता का
अंतिम जब आधार मरण में,

दिशा विहीन मनुष्यता जब
पशुता संग ही ओझल हो गयी,

सिक्को की झंकार न जाने
उन्नति का अभिशाप ही होगी,

सम्बोधन का अर्थ है प्रगति
उन्नति का आधार अवनति,

गिरता जाता हर पल मानव
धिक्कार इस परवशता पर,

हर पल मानो दानव पग में
उठता गिरता डग ही डग में,

जीवन सब न्योछावर कर के
पाया क्या बस पोटली भर के,

क्षुद्रता ये जीवन भर की
क्या जाएगी अब जीवन संग ही,

मुक्त-ता की आशा मन में
क्या रह जाएगी मन ही मन में?

दरिद्रता की संस्कृति ये तो
विवशता जीवन जीने की ,

लोलुपता संचय का दंश है
कंचन मृगया का अंश ही धन है !

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *