ईश्वर का रूप
सुबह सुबह की कोमल किरणे
जब नदियों को छु जाती है,
इठलाती बलखाती लहरें
झिलमिल सी झांकी लाती है,
नत मस्तक हो हिम-पर्बत भी
उसको शीश नवाता है,
कल-कल ध्वनि का सुमधुर गायन
पल-पल को युग कर जाता है,
रात्रि काल का अँधियारा तब
सूरज संग छट जाता है,
बरसों के जीवन में मानव
तूने ना जो पाया है
उत्थान वो जीवन भर का
ये दृश्य पटल दे जाता है,
रजिनि-हर की चादर में जब
अंध-दैत्य छुप जाता है
विजय शंख ये मानवता का
असुर-अंश मिटाता है,
पुण्य-पाप का भेद ये सारा
एकाकी हो जाता है,
नए जनम का नया सवेरा
क्यूँ ना मानव मान इसे
लोभ पाप का खेल रचा जो
क्यूँ ना मानव त्याग उसे,
सुंदरता का रूप है तू
फिर सुन्दर क्यूँ ये ह्रदय ना हो
उस ईश्वर का ही अंश है तू
हे देव-रज पहचान तुझे,
हम सब में उसका रूप बसा
फिर उसको क्यूँ ना पाएं हम
जब वो है कण कण में हासिल
अब खुद ईश्वर हो जाएँ हम !
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