रिश्तों का अलाव
कभी ज़िन्दगी से रूबरू हो कर देखा हैं ?
कभी रिश्तों का अलाव तापा हैं ?
सर्द सियाह रात की तपिश से जलते हुए
कभी चोटी पे बैठे उस सन्यासी को
महसूस किया हैं अपने अंदर?
इच्छाओं की बरबसता में बहते हुए
जब ज़िन्दगी किनारे संग ओझल लगती हैं,
डूबते चाँद की इक ख्वाहिश भी
इंसान की इंसानियत भुला देती हैं,
उस बवंडर की शून्यता को महसूस किया हैं कभी?
खोने पाने के उदगार में,
निरर्थक अपमान के व्यवहार में,
ज़िन्दगी की हीनता……परवशता
अपने व्यवहार की पशुता
किसी और के संग अपनी विवशता
प्रकृति का क्रूर अट्टहास
महसूस किया हैं कभी?
ज़िन्दगी देखीं हैं कभी ?